लघुसिद्धान्त कौमुदी भाग-2, गोविन्द प्रसाद शर्मा / Laghu Siddhanta Kaumudi Part-2, Govind Prasad Sharma - भारतीय संस्कृतप्रभा

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Thursday, July 8, 2021

लघुसिद्धान्त कौमुदी भाग-2, गोविन्द प्रसाद शर्मा / Laghu Siddhanta Kaumudi Part-2, Govind Prasad Sharma

 

लघुसिद्धान्त कौमुदी भाग-2, गोविन्द प्रसाद शर्मा / Laghu Siddhanta Kaumudi Part-2, Govind Prasad Sharma


पुस्तक का नाम - लघुसिद्धान्त कौमुदी भाग-2, गोविन्द प्रसाद शर्मा / Laghu Siddhanta Kaumudi Part-2, Govind Prasad Sharma रचयिता - वरदराजाचार्य: व्याख्याकार - गोविन्द प्रसाद शर्मा प्रकाशन - चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन विषय - भ्वादयः, अदादयः, जुहोत्यादयः , दिवादयः , स्वादयः, तुदादयः , रुधादयः, तनादयः, क्रयादयः, चुरादयः , ण्यन्तप्रक्रिया, सन्नन्तप्रक्रिया, यङन्तप्रक्रिया, यङ्लुगन्तप्रक्रिया, नामधातवः, कण्ड्वादयः, आत्मनेपदप्रक्रिया , परस्मैपदप्रक्रिया, भावकर्मप्रक्रिया, कर्मकर्तृप्रक्रिया , लकारार्थप्रक्रिया
Ashish Choudhury


पुस्तक का नाम - लघुसिद्धान्त कौमुदी भाग-2, गोविन्द प्रसाद शर्मा / Laghu Siddhanta Kaumudi Part-2, Govind Prasad Sharma

रचयिता - वरदराजाचार्य:
व्याख्याकार - गोविन्द प्रसाद शर्मा
प्रकाशन - चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन
विषय - भ्वादयः, अदादयः, जुहोत्यादयः , दिवादयः , स्वादयः, तुदादयः , रुधादयः, तनादयः, क्रयादयः, चुरादयः , ण्यन्तप्रक्रिया, सन्नन्तप्रक्रिया, यङन्तप्रक्रिया, यङ्लुगन्तप्रक्रिया, नामधातवः, कण्ड्वादयः, आत्मनेपदप्रक्रिया , परस्मैपदप्रक्रिया, भावकर्मप्रक्रिया, कर्मकर्तृप्रक्रिया , लकारार्थप्रक्रिया

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सिद्धान्तकौमुदी : - 

                            संस्कृत व्याकरण का ग्रन्थ है जिसके रचयिता भट्टोजि दीक्षित हैं। इसका पूरा नाम "वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी" है। भट्टोजि दीक्षित ने प्रक्रियाकौमुदी के आधार पर सिद्धांत कौमुदी की रचना की। इस ग्रंथ पर उन्होंने स्वयं प्रौढ़ मनोरमा टीका लिखी। भट्टोजिदीक्षित के शिष्य वरदराज भी व्याकरण के महान पण्डित हुए। उन्होने लघुसिद्धान्तकौमुदी की रचना की।

पाणिनीय व्याकरण के अध्ययन की प्राचीन परिपाटी में पाणिनीय सूत्रपाठ के क्रम को आधार माना जाता था। यह क्रम प्रयोगसिद्धि की दृष्टि से कठिन था क्योंकि एक ही प्रयोग का साधन करने के लिए विभिन्न अध्यायों के सूत्र लगाने पड़ते थे। इस कठिनाई को देखकर ऐसी पद्धति के आविष्कार की आवश्यकता पड़ी जिसमें प्रयोगविशेष की सिद्धि के लिए आवश्यक सभी सूत्र एक जगह उपलब्ध हों।

ग्रन्थ का स्वरूप संपादित करें
सिद्धान्तकौमुदी, अष्टाध्यायी से अधिक लोकप्रिय है। अष्टाध्यायी के सूत्रों का क्रमपरिवर्तन करते हुए उपयुक्त शीर्षकों के अन्तर्गत एकत्र किया गया है और उनकी व्याख्या की गयी है। इस प्रकार सिद्धान्तकौमुदी अधिक व्यवस्थित है तथा सरलता से समझी जा सकती है। सिद्धान्तकौमुदी बहुत बड़ा ग्रन्थ है, संस्कृत भाषा का व्याकरण इसमें पूर्ण रूप से आ गया है।

इसमें कई प्रकरण हैं, जैसे-

(१) संज्ञाप्रकरणम्
(२) परिभाषाप्रकरणम्
सभी प्रतिसूत्रों की व्याख्या की गयी है, जैसे-

अदें गुणः /१/१/२.
इदं ह्रस्वस्य अकारस्य एकार-ओकारयोश्च गुणसंज्ञाविधायकं सूत्रम्। अस्य सूत्रस्य वृत्तिः एवमस्ति, अदें च गुणसंज्ञः स्यात्।
सिद्धान्तकौमुदी भट्टोजिदीक्षित की कीर्ति का प्रसार करने वाला मुख्य ग्रन्थ है। यह ‘शब्द कौस्तुभ’ के पश्चात् लिखा गया था। भट्टोजिदीक्षित ने स्वयं ही इस पर प्रौढ़मनोरमा नाम की टीका लिखी है। सिद्धान्त-कौमुदी को प्रक्रिया-पद्धति का सर्वोत्तम ग्रन्थ समझा जाता है। इससे पूर्व जो प्रक्रिया गन्थ लिखे गये थे उनमें अष्टाध्यायी के सभी सूत्रों का समावेश नहीं था। भट्टोजिदीक्षित ने सिद्धान्तकौमुदी में अष्टाध्यायी के सभी सूत्रों को विविध प्रकरणों में व्यवस्थित किया है, इसी के अन्तर्गत समस्त धातुओं के रूपों का विवरण दे दिया है तथा लौकिक संस्कृत के व्याकरण का विश्लेषण करके वैदिक-प्रक्रिया एवं स्वर-प्रक्रिया को अन्त में रख दिया है।

भट्टोजिदीक्षित ने काशिका, न्यास एवं पदम जरी आदि सूत्राक्रमानुसारिणी व्याख्याओं तथा प्रक्रियाकौमुदी और उसकी टीकाओं के मतों की समीक्षा करते हुए प्रक्रिया-पद्धति के अनुसार पाणिनीय व्याकरण का सर्वांगीण रूप प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। उन्होंने आवश्यकतानुसार परिभाषाओं, वार्त्तिकों तथा भाष्येष्टियों का भी उल्लेख किया है। उन्होंने मुनित्रय के मन्तव्यों का सामंजस्य दिखाया है तथा महाभाष्य का आधार लेकर कुछ स्वकीय मत भी स्थापित किये हैं। साथ ही प्रसिद्ध कवियों द्वारा प्रयुक्त किन्हीं विवादास्पद प्रयोगों की साधुता पर भी विचार किया है।

मध्ययुग में सिद्धान्तकौमुदी का इतना प्रचार एवं प्रसार हुआ कि पाणिनि व्याकरण की प्राचीन पद्धति एवं मुग्धबोध आदि व्याकरण पद्धतियाँ विलीन होती चली गई। कालान्तर में प्रक्रिया-पद्धति तथा सिद्धान्तकौमुदी के दोषों की ओर भी विद्वानों की दृष्टि गई किन्तु वे इसे न छोड़ सके।

पाणिनीय व्याकरण में भट्टेजिदीक्षित का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पाणिनि-व्याकरण पर उनका ऐसा अनूठा प्रभाव पड़ा है कि महाभाष्य का महत्त्व भी भुला दिया गया है। यह समझा जाने लगा है कि सिद्धान्तकौमुदी महाभाष्य का द्वार ही नहीं है अपितु महाभाष्य का संक्षिप्त किन्तु विशद सार है। इसी हेतु यह उक्ति प्रचलित हैः-

कौमुदी यदि कण्ठस्था वृथा भाष्ये परिश्रमः।
कौमुदी यद्यकण्ठस्था वृथा भाष्ये परिश्रमः॥

                        - : समाप्त : -       


Author of pages : - Ashish Choudhury
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